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    Thodi Kalpana, Thodi Sachchai: Laghukatha Sangrah (Hindi Edition)

    Por Manik Joshi

    Sobre

    मानिक जोशी द्वारा लिखित इस पुस्तक में संग्रहित 75 हिन्दी लघुकथाएँ -- 01. वे शब्द 02. इतिहास दोहराया गया 03. कोई मतलब नहीं 04. सरकार 05. सात बजकर दो मिनट उन्नीस सेकेंड 06. आशीर्वाद 07. लघुकथा 08. शुभ-अशुभ 09. आँसू 10. मृत्यु तक का सम्बन्ध 11. जीवनसाथी 12. उत्सव 13. पशुओं की मानवता 14. कहानी न बन सकी 15. गलती का लाभ 16. नियम-कानून 17. संजोग 18. ईमानदारी का ढिंढोरा 19. मांग 20. वो साहित्यकार बन गया 21. बिजली 22. गोली 23. ये कैसा जीवप्रेम 24. सीखने की उमर 25. थप्पड़ 26. चोरी की रोटियाँ 27. वंशी रव 28. कूड़ा 29. मानव स्वभाव 30. समय 31. परिस्थिति 32. मीठी छुरी 33. अंगूठी 34. लाठी भी टूट गयी और साँप भी नहीं मरा 35. अधूरा ज्ञान 36. यथार्थ का बोध 37. डॉक्टर 38. साहित्य का सत्यानाश 39. रिश्ता 40. अध्याय 41. ढंग से चल 42. वो भिखारिन 43. कहीं न कहीं कुछ न कुछ तो है 44. उम्मीद 45. निष्कर्ष 46. कर्तव्य 47. टेंशन 48. शिक्षा 49. अंतिम पत्र 50. अन्तर्द्वन्द 51. सीख 52. निशानियाँ मिटती गयीं 53. तमाशा 54. ऐसी भी क्या चिंता 55. परम्परा 56. विचार 57. भावना 58. उधार 59. सपना 60. सावधानी 61. क्या वो वही थी 62. नेता 63. पुस्तक प्रकाशन 64. काले बालों की सनक 65. सज्जन-दुर्जन 66. प्यार की परीक्षा 67. ‘रेट’ 68. पुलिसिया राज 69. वास्तुशास्त्र 70. बिना पैसे यात्रा 71. मिथक 72. अनुभव 73. फटे-पुराने नोट 74. स्कूल कैम्प 75. समीक्षा

    लघुकथा 1. वे शब्द

    कॉलेज जाने वाली कच्ची सड़क की दशा पहले ही बहुत बुरी थी और पिछले दिनों की मूसलाधार बारिश ने तो इसे और भी भयानक बना दिया था।

    ‘क्लासेस’ ‘ऑफ’ होने के उपरांत बी.एस-सी. प्रथम वर्ष के समस्त छात्र-छात्राएँ वापस अपने-अपने घरों को लौट रहे थे। फिसलने की आशंका से सभी बहुत सँभल-सँभल कर चल रहे थे।

    सहसा एक स्थान पर प्रांजल का पैर फिसल गया और आकांक्षा के पैर से जा टकराया। प्रांजल ने तो स्वयं को सँभाल लिया लेकिन आकांक्षा बुरी तरह फिसलने के कारण गिर पड़ी। सफेद सूट कीचड़ से लथपथ हो गया। वो किसी भाँति कीचड़ से उठी और सीधे
    प्रांजल के सम्मुख जाकर उसने उसके दोनों गालों पर चार-चार थप्पड़ जड़ दिए। क्रोध से उसका चेहरा तमतमा रहा था। कई भद्दी-भद्दी गालियाँ भी वो प्रांजल को देने लगी। बेचारा प्रांजल ‘सौरी, वैरी सौरी’ ही बोले जा रहा था लेकिन आकांक्षा थी कि चुप होने का नाम ही नहीं ले रही थी। अन्ततः आकांक्षा को शांत न होते देख प्रांजल आगे बढ़ गया।

    प्रांजल अब अतिरिक्त सावधानी से चल रहा था। कहीं पुनः सामत न आ जाए। आकांक्षा भी अब रूमाल से अपने कपड़े साफ करते हुए आगे बढ़ने लगी। उसकी चाल प्रांजल की अपेक्षा कुछ तेज थी। तीखे शब्द अब भी उसकी जबान पर थे।

    सहसा एक स्थान पर आकांक्षा का पैर फिसल गया और प्रांजल के पैर से जा टकराया। अबकी बार आकांक्षा ने तो स्वयं को सँभाल लिया लेकिन प्रांजल बुरी तरह फिसलने के कारण गिर पड़ा। वो आज नयी ‘पैंट-शर्ट’ पहनकर कॉलेज आया था। लेकिन कीचड़ ने उसके कपड़ों की सारी चमक धो दी। ‘ब्रायोफाइटा’ (बॉटनी) की ‘बुक’ भी हाथ से छिटककर कीचड़ में जा गिरी थी।

    प्रांजल किसी भाँति कीचड़ से उठा और अपनी ‘बुक’ उठाने के लिए पीछे मुड़ा। आकांक्षा थप्पड़ मारे जाने की आशंका से थर-थर काँपने लगी थी। प्रांजल को गालियाँ देती उसकी जबान पर अब लगाम लग चुकी थी।

    प्रांजल ‘बुक’ उठाकर ज्यों खड़ा हुआ, आकांक्षा ने काँपते होठों से ‘सौरी’ कहा। प्रांजल पहले थोड़ा मुस्कुराया और फिर बोला-‘कोई बात नहीं मेरी बहना, कभी-कभी ऐसा हो जाता है।’ इतना कहते ही वह वापस लौट चला।

    थप्पड़ और गालियों के बदले ‘बहन’ की संज्ञा। आकांक्षा चौंक उठी। उसे सपने में भी ऐसी कल्पना न थी। क्रोध और भय का स्थान अब आश्चर्य के भाव ने ले लिया था। उसे अपने किए पर पछतावा होने लगा। उसकी आँखें आगे बढ़ते प्रांजल को निर्निमेष निहार रही थीं और उसके कानों में प्रांजल के कहे वे शब्द अनवरत गूँज रहे थे।
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